जुल्म और ज़ुर्म
सदियों से
जो हो रहे हैं .....
कौन चाहता है ?
कौन कहता है ?
और
कौन सहता है ?
हम और तुम ....
हम सब ?
पर ...
कौन करता है ?
वो ... वो ,या फ़िर वो !
बच्चे और बुज़ुर्ग ...
नादां हैं बच्चे
बुज़र्ग लाचार हैं
शेष स्त्री और पुरुष
करते हैं विरोध
कभी खुलकर
और कभी
दबी ज़ुबान से
स्त्री चीखती हैं
पर
उसकी महीन आवाज़
उलझ जाती है
घर के चौके - चूल्हे से ...
या फ़िर आंगन की
तुलसी पर
थम जाती है
इस पर भी अगर
शेष है आवाज़
तो हो जाती है
बस पर सवार
और दफ्तर तक
पहुंचकर
बेसाख्ता .... बीमार
पर फ़िर भी आवाज़
शेष है ....
जो दब जाती है
विकृत .... नपुंसक
पुरुष के दुराचार
और अनाधिकार
की भर्राहट में...
--------------------- डॉ . प्रतिभा स्वाति
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