संस्कार खत्म
होते ही .....
प्यार खत्म
होते ही ....
उसकी जगह
लेता है दौड़कर ,
स्वार्थ .....
वैमनस्य ....
षडयंत्र .....
इनसे कभी भी ,
कहीं भी ...
सृजन नहीं होता !
होता है विनाश ......
तब ... हो जाती है
जमीन बंज़र !
रोता है ..आकाश !
दहकती है ...
सिर्फ़ ... आग़ !
चलती है आंधी ..
नफ़रत की !
सब ... विलुप्त ...
सब.... ख़ाली ...
पंच - तत्व विहीन ..
उस ही में लीन !
फ़िर ...
बंज़र जमीन पर
पनपने लगती है
नपुंसक भीड़ ....
जिसकी नहीं होती
कोई जड़ ...
नहीं फूटती जिसमें
कभी / कोई
ख़ुशी की कोपल !
उपलब्धि के पुष्प !
होते हैं सिर्फ़
कंटक ...
अभिलाषा से ...
उपजे इस
शोर के शिखंडी ने
मौन से जन्मे
चिन्तन के भीष्म
के ख़िलाफ़
साजिश में फ़िर
की है शिरक़त ....
बज रही है
दुन्दुभी ...फ़िर से
विनाश की .....
भीड़ को रहती है
तलाश ... सिर्फ़
एक भेड़ की ........ !!!
__________________ डॉ.प्रतिभा स्वाति
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