तृष्णा
कोई कहता बंगाली है तो किसी ने कहा नहीं क्रिश्चियन है ! कुछ उसके महाराष्ट्रियन होने का अंदाज़ लगा रहे थे ! किसी ने उसे थाने पर गाड़ी खड़ी करते देखा था ,सो बोला मुझे लगता है पुलिस में है ! नहीं ए बी रोड पर भास्कर के ऑफिस में देखा है मैंने कई बार पत्रकार है शायद ! जो भी हो है बड़ी तेज़ ये इस "तेज " वाले मुद्दे पर सब एकमत थे :) वो डरावनी तो कतई नहीं थी ,पर सब डर रहे थे उससे ! मुझे स्मार्ट लगी ! एसटीडी पर देखा था उस दिन . बात करने के अंदाज से लगा पढ़ी -लिखी है , आवाज़ में दम था ,उसकी हंसी में गज़ब की खनक महसूस की मैंने .
मेरा फ़ोन आने वाला था ,ग्वालियर से . मै तब इंदौर में थी . राष्ट्रीय हिंदी मेल जो भोपाल से प्रकाशित हो रहा था , सम्पादक विजय दास थे . मैं इंदौर से बतौर संवाददाता क्राइम रिपोर्ट करती थी . फुर्सत कम होती थी इसलिए तृष्णा वाले मुआमले में मैंने कोई दिलचस्पी नहीं ली .
पात्र का नाम भी बता दिया ,स्थान भी ! उसकी उम्र यही कोई 25 से 30 के बीच होगी ( लीजिये इस औपचारिकता का निर्वाह स्वत: ही हो गया ) रही बात लोगों के अंदाज़ की ,तो भई ये मानवीय फ़ितरत है . इसे हम रोक सकते हैं ? यदि यह इसी तर्ज़ पर चले तो कोई नुकसान नहीं मेरे पात्र को :) पर यदि यह अफ़वाह में तब्दील हुई तो एतराज़ लाज़िमी है . है ना ? फुर्सत हो तो अंदाज़ आप भी लगा सकते हैं ! पर मै आपको सत्य और पात्र के सकारात्मक पहलू से मिलवा कर जाउंगी ! यही उद्देश्य है ,मेरे लिखने का . मीनमेख निलालना मानवीय प्रकृति है , लेकिन लेखकीय -धर्म उससे उपर है . भला किसी की ख़ामी निकालना कौनसी ख़ूबी है ? वैसे जिज्ञासा मानवीय स्वभाव है , इससे भला हम और आप इनकार कर सकते हैं ? शायद इसीके वशीभूत सब "कुछ ' न जान पाने के कारण तृष्णा पर अपने अंदाजों का लेबल चस्पा करने को बाध्य थे :)
कालोनी के बच्चे भी पीछे नहीं थे .मीठी -अबोध मुखबिरी किये जा रहे थे ,अनजाने में .उनकी माताएं यानी मेरी मुंहबोली भाभियाँ उसमें नमक -मिर्च लगाकर अपनी दोपहर का गुज़ारा कर रहीं थीं . वैसे सभीको किसी चटपटी मसालेदार खबर का इंतज़ार था .कालोनी के कुछ लुन्गाणों ने उसका पीछा करना शुरू कर दिया था . इस बात की शिकायत करने वो थाने गई थी ,याने उसके पुलिस में होने का अंदाज़ ग़लत था :) जब t.i. बृजेश से बात हुई तब पता चला :) उन्होंने मुझपे व्यंग्य कसा था - " प्रतिभा , तुम्हारे पड़ोस की अबला है , थोड़ा उसका ध्यान रखोना वरना तुम्हारे 2-4 भाई अंदर हो जाएँगे " फ़िर एक कोमल -सी मुस्कान लाकर उन्होंने सारी बात बताई ! मेरे उन तथाकथित भाइयों का अंदाज़ था कि वो अकेली तो है ही ,शायद उसकी शादी -वादी नहीं हुई ,इसलिए उनका स्कोप बनता है , ट्राय करने में क्या हर्ज़ है ! क्या बेरोज़गार युवा को कोई सही दिशा दे सकता है ? क्या मनोरंजन का ये तरीका है ?
वैसे मुहल्ले के ये भाई मुझे दीदी कहते थे . मेरे कज़िन नज़दीक ही रहते थे ,शायद उनके दोस्ताने के लिहाज़ से . अच्छे घरों के अच्छे बच्चे थे . बस भटक रहे थे या भटक गए थे यूँ कहिये ! अब संस्कार की घुट्टी घर में कहाँ , कौन मां घिसती है ? बाज़ार में बनी बनाई जबसे मिलने लगी है ! स्कूल में अनुशासन का पाठ यूनिफार्म की इस्त्री पर ही खत्म हो जाता है होमवर्क पूरा होना भी इसी में शुमार कर लीजिये . क्या मैं ग़लत कह रही हूँ ?
उसदिन बिट्टू की मम्मी ने मेरे दरवाजे पे दस्तक दी ,अमूमन मेरा दरवाज़ा कोई यूँ ही नहीं बजाता मैंने खिड़की ही से कहा - " भाभी शाम को बात कर लें ? अभी मैंने पूजा भी नहीं की , मुझे जाना भी है . फ़िर भी उनके उत्साह में कोई कमी न आई बोलीं - "हाँ दीदी , पर शाम को कब आऊ ? मुझे आपसे अकेले में बात करनी है !' मुझे हंसी आ गई " अच्छा तो अभी बतादो " मैंने दरवाज़ा खोल दिया .वे बोलीं - " नहीं बैठूंगी नहीं ,अभी बिट्टू के पापा ऑफिस नही गए पर भेजा उन्हीं ने है ये पूछ्के आने को की क्या हम लोग उसके दरवाजे पे गाड़ी नी खड़ी कर सकते ? सड़क उसके बाप की है क्या ? " उनको गुस्सा आ गया था ! मामले की नाज़ुकी देखते हुए ,मैंने उन्हें पानी पिलाया और प्रतिप्रश्न किया - " भाभी , गाड़ी के लिए गैरेज है तो वहां खड़ी कर देते ,उसके दरवाजे पे क्यूँ ? " वे बोलीं " अरे दीदी ये ज़रा देर को आए थे ,खाना खाने .उधर छाँव के कारण . वो आपकी सहेली बोली हटाओ यहाँ से नी तो पुलिस में फ़ोन कर दूंगी " अरे ! मुझेi भी अजीब लगा थोड़ा .मैंने उन्हें समझाया अभी नई आई है ,किसी को जानती नहीं . वैसे मुझे उनके पति की हरकत भी नागवार गुज़री थी .क्या क्या ज़ुरूरत थी उन्हें उलझने की ? बात को हल्का करने के लिहाज़ से मैंने परिहास किया " हम नन्द -भौजाई सहेली हैं ,वो मेरी सहेली कैसे हुई भला ?" मैं तो उसे जानती भी नहीं थी . " वो भी आपकी तरह जींस - शर्ट जो पहनती है ,तो आपकी सहेली हुई :) अपने जवाब पर वे जोर से हंसी और जाने को खड़ी हो गई , बोलीं शाम को आउंगी ,अभी सब काम पसरा पड़ा है ! ओह भगवान अभी शाम की क़ुरबानी बाकी थी ?
नगर सुरक्षा समिति में मैं थी . कई सुनहरी शामें जन-सेवा के नाम पर स्याह हुआ करती थीं . ये मामला भी निपट ही गया जैसे -तैसे .पर फ़ैसला तृष्णा के पक्ष में था कि कोई भी उसके फ़्लैट के सामने गाड़ी पार्क नहीं करेगा .उसका फ़्लैट ग्राउंड फ्लोर पर था .तथाकथित भाइयों के हाथ से उसके यहाँ ताका -झांकी का ये मौका जाता रहा :)
स्टेशनरी - शॉप पर उस दिन उससे फ़िर नजरें मिली .इस बार परस्पर मुस्कान का आदान - प्रदान हुआ .वहां भीड़ ज्यादा थी और मैं एक बार इत्मिनान से बात करना चाहती थी . जिससे मोहल्ले का माहौल पूर्ववत हो जाए , पारिवारिक वातावरण था वहां !सबको अपनी सीमा ज्ञात थी सब अपने बनाए रिश्ते पर कायम थे .दूध वाले काका थे ,किराने वाले भैया थे ! मेरी भौजाइयाँ अपने बच्चों को डपट देती थीं _ क्या मैडम - मैडम लगा रखते हो बुआ नहीं बोल सकते :) उनके पति मुझे बेहिचक दीदी बोलते थे . पूरे मोहल्ले में बस दुबे आंटी मुझे प्रतिभा नाम से बुलाती थीं :)
उस समय mob नहीं थे ! एसटीडी पर पंचायत होती थी या फ़िर पान की दुकानों पर ! लेकिन तृष्णा से मेरी पहली और आख़िरी चर्चा (तफ़सील से ) अहिल्या सेंट्रल लायब्ररी में हुई ! मेरा वहां जाना और उसका निकलना एकसाथ हुआ !अरे तुम ! दोनों के मुंह से एकसाथ निकला ! और हम दोनों ऐसे हंस रहे थे जैसे बरसों से एक -दूसरे को जानते हों :) चलो रीडिंग रूम में बैठते हैं थोड़ी देर .वहां अमूमन कोई होता नहीं था ! लायब्रेरियन रघुवंशी सर मेरे पति के घनिष्ट मित्र थे ज्यादा देर बैठने पर माधव के हाथ चाय भिजवा देते थे .वापसी में उनको बताकर ही आती थी. कोई संदेश या कोई लेख -वेख होता तो वे मुझे थमा देते कि प्रदीप को दे देना ! प्रदीप ? मेरे पति :)
उस दिन भी चाय आई ! मैंने माधव से कहा एक खाली कप ला दो ! और सर से पूछ लो कुछ देना तो नहीं ? हम दोनों इधर से ही निकल जाएँगे ,मेरा नमस्ते बोल देना ! हम बातचीत के औपचारिक दौर से गुजर कर आत्मीय हो चले थे .उसने मेरे बारे में पूछताछ की सहज -सी शुरुआत की थी मैंने बता दिया . अपने बारे में कुछ हिचकते हुए ,उसने स्वयम ही बताया ! जो भी था सबके अंदाज़ से ,एकदम अलग . दु:खद और चौंकाने वाला ! मै स्तब्ध रह गई ,पल भर को !
तृष्णा ने पांच साल पहले लव-मेरिज की थी .दोनों परिवार ख़ुश नहीं थे इस शादी से ! ऐसा अधिकतर होता रहा है ,हमारे समाज में . पर अब उसका पति उसके 5 साल के बेटे को लेकर गायब हो गया है ! उसे नहीं मालूम दोनों कहाँ है ? कहाँ -कहाँ खोजे ? किससे मदद मांगे ? क्या करे ? पुलिस ने उसे मायूस ही किया था ! ससुराल वालों ने आहत ! मायके वाले किनारा कर ही चुके थे ! पीड़ा से उसका मुख ज़र्द था . मैं किंकर्तव्यमूढ़ -सी ! क्या पति ऐसा हो सकता है ?
-------------------------------- डॉ. प्रतिभा स्वाति
कोई कहता बंगाली है तो किसी ने कहा नहीं क्रिश्चियन है ! कुछ उसके महाराष्ट्रियन होने का अंदाज़ लगा रहे थे ! किसी ने उसे थाने पर गाड़ी खड़ी करते देखा था ,सो बोला मुझे लगता है पुलिस में है ! नहीं ए बी रोड पर भास्कर के ऑफिस में देखा है मैंने कई बार पत्रकार है शायद ! जो भी हो है बड़ी तेज़ ये इस "तेज " वाले मुद्दे पर सब एकमत थे :) वो डरावनी तो कतई नहीं थी ,पर सब डर रहे थे उससे ! मुझे स्मार्ट लगी ! एसटीडी पर देखा था उस दिन . बात करने के अंदाज से लगा पढ़ी -लिखी है , आवाज़ में दम था ,उसकी हंसी में गज़ब की खनक महसूस की मैंने .
मेरा फ़ोन आने वाला था ,ग्वालियर से . मै तब इंदौर में थी . राष्ट्रीय हिंदी मेल जो भोपाल से प्रकाशित हो रहा था , सम्पादक विजय दास थे . मैं इंदौर से बतौर संवाददाता क्राइम रिपोर्ट करती थी . फुर्सत कम होती थी इसलिए तृष्णा वाले मुआमले में मैंने कोई दिलचस्पी नहीं ली .
पात्र का नाम भी बता दिया ,स्थान भी ! उसकी उम्र यही कोई 25 से 30 के बीच होगी ( लीजिये इस औपचारिकता का निर्वाह स्वत: ही हो गया ) रही बात लोगों के अंदाज़ की ,तो भई ये मानवीय फ़ितरत है . इसे हम रोक सकते हैं ? यदि यह इसी तर्ज़ पर चले तो कोई नुकसान नहीं मेरे पात्र को :) पर यदि यह अफ़वाह में तब्दील हुई तो एतराज़ लाज़िमी है . है ना ? फुर्सत हो तो अंदाज़ आप भी लगा सकते हैं ! पर मै आपको सत्य और पात्र के सकारात्मक पहलू से मिलवा कर जाउंगी ! यही उद्देश्य है ,मेरे लिखने का . मीनमेख निलालना मानवीय प्रकृति है , लेकिन लेखकीय -धर्म उससे उपर है . भला किसी की ख़ामी निकालना कौनसी ख़ूबी है ? वैसे जिज्ञासा मानवीय स्वभाव है , इससे भला हम और आप इनकार कर सकते हैं ? शायद इसीके वशीभूत सब "कुछ ' न जान पाने के कारण तृष्णा पर अपने अंदाजों का लेबल चस्पा करने को बाध्य थे :)
कालोनी के बच्चे भी पीछे नहीं थे .मीठी -अबोध मुखबिरी किये जा रहे थे ,अनजाने में .उनकी माताएं यानी मेरी मुंहबोली भाभियाँ उसमें नमक -मिर्च लगाकर अपनी दोपहर का गुज़ारा कर रहीं थीं . वैसे सभीको किसी चटपटी मसालेदार खबर का इंतज़ार था .कालोनी के कुछ लुन्गाणों ने उसका पीछा करना शुरू कर दिया था . इस बात की शिकायत करने वो थाने गई थी ,याने उसके पुलिस में होने का अंदाज़ ग़लत था :) जब t.i. बृजेश से बात हुई तब पता चला :) उन्होंने मुझपे व्यंग्य कसा था - " प्रतिभा , तुम्हारे पड़ोस की अबला है , थोड़ा उसका ध्यान रखोना वरना तुम्हारे 2-4 भाई अंदर हो जाएँगे " फ़िर एक कोमल -सी मुस्कान लाकर उन्होंने सारी बात बताई ! मेरे उन तथाकथित भाइयों का अंदाज़ था कि वो अकेली तो है ही ,शायद उसकी शादी -वादी नहीं हुई ,इसलिए उनका स्कोप बनता है , ट्राय करने में क्या हर्ज़ है ! क्या बेरोज़गार युवा को कोई सही दिशा दे सकता है ? क्या मनोरंजन का ये तरीका है ?
वैसे मुहल्ले के ये भाई मुझे दीदी कहते थे . मेरे कज़िन नज़दीक ही रहते थे ,शायद उनके दोस्ताने के लिहाज़ से . अच्छे घरों के अच्छे बच्चे थे . बस भटक रहे थे या भटक गए थे यूँ कहिये ! अब संस्कार की घुट्टी घर में कहाँ , कौन मां घिसती है ? बाज़ार में बनी बनाई जबसे मिलने लगी है ! स्कूल में अनुशासन का पाठ यूनिफार्म की इस्त्री पर ही खत्म हो जाता है होमवर्क पूरा होना भी इसी में शुमार कर लीजिये . क्या मैं ग़लत कह रही हूँ ?
उसदिन बिट्टू की मम्मी ने मेरे दरवाजे पे दस्तक दी ,अमूमन मेरा दरवाज़ा कोई यूँ ही नहीं बजाता मैंने खिड़की ही से कहा - " भाभी शाम को बात कर लें ? अभी मैंने पूजा भी नहीं की , मुझे जाना भी है . फ़िर भी उनके उत्साह में कोई कमी न आई बोलीं - "हाँ दीदी , पर शाम को कब आऊ ? मुझे आपसे अकेले में बात करनी है !' मुझे हंसी आ गई " अच्छा तो अभी बतादो " मैंने दरवाज़ा खोल दिया .वे बोलीं - " नहीं बैठूंगी नहीं ,अभी बिट्टू के पापा ऑफिस नही गए पर भेजा उन्हीं ने है ये पूछ्के आने को की क्या हम लोग उसके दरवाजे पे गाड़ी नी खड़ी कर सकते ? सड़क उसके बाप की है क्या ? " उनको गुस्सा आ गया था ! मामले की नाज़ुकी देखते हुए ,मैंने उन्हें पानी पिलाया और प्रतिप्रश्न किया - " भाभी , गाड़ी के लिए गैरेज है तो वहां खड़ी कर देते ,उसके दरवाजे पे क्यूँ ? " वे बोलीं " अरे दीदी ये ज़रा देर को आए थे ,खाना खाने .उधर छाँव के कारण . वो आपकी सहेली बोली हटाओ यहाँ से नी तो पुलिस में फ़ोन कर दूंगी " अरे ! मुझेi भी अजीब लगा थोड़ा .मैंने उन्हें समझाया अभी नई आई है ,किसी को जानती नहीं . वैसे मुझे उनके पति की हरकत भी नागवार गुज़री थी .क्या क्या ज़ुरूरत थी उन्हें उलझने की ? बात को हल्का करने के लिहाज़ से मैंने परिहास किया " हम नन्द -भौजाई सहेली हैं ,वो मेरी सहेली कैसे हुई भला ?" मैं तो उसे जानती भी नहीं थी . " वो भी आपकी तरह जींस - शर्ट जो पहनती है ,तो आपकी सहेली हुई :) अपने जवाब पर वे जोर से हंसी और जाने को खड़ी हो गई , बोलीं शाम को आउंगी ,अभी सब काम पसरा पड़ा है ! ओह भगवान अभी शाम की क़ुरबानी बाकी थी ?
नगर सुरक्षा समिति में मैं थी . कई सुनहरी शामें जन-सेवा के नाम पर स्याह हुआ करती थीं . ये मामला भी निपट ही गया जैसे -तैसे .पर फ़ैसला तृष्णा के पक्ष में था कि कोई भी उसके फ़्लैट के सामने गाड़ी पार्क नहीं करेगा .उसका फ़्लैट ग्राउंड फ्लोर पर था .तथाकथित भाइयों के हाथ से उसके यहाँ ताका -झांकी का ये मौका जाता रहा :)
स्टेशनरी - शॉप पर उस दिन उससे फ़िर नजरें मिली .इस बार परस्पर मुस्कान का आदान - प्रदान हुआ .वहां भीड़ ज्यादा थी और मैं एक बार इत्मिनान से बात करना चाहती थी . जिससे मोहल्ले का माहौल पूर्ववत हो जाए , पारिवारिक वातावरण था वहां !सबको अपनी सीमा ज्ञात थी सब अपने बनाए रिश्ते पर कायम थे .दूध वाले काका थे ,किराने वाले भैया थे ! मेरी भौजाइयाँ अपने बच्चों को डपट देती थीं _ क्या मैडम - मैडम लगा रखते हो बुआ नहीं बोल सकते :) उनके पति मुझे बेहिचक दीदी बोलते थे . पूरे मोहल्ले में बस दुबे आंटी मुझे प्रतिभा नाम से बुलाती थीं :)
उस समय mob नहीं थे ! एसटीडी पर पंचायत होती थी या फ़िर पान की दुकानों पर ! लेकिन तृष्णा से मेरी पहली और आख़िरी चर्चा (तफ़सील से ) अहिल्या सेंट्रल लायब्ररी में हुई ! मेरा वहां जाना और उसका निकलना एकसाथ हुआ !अरे तुम ! दोनों के मुंह से एकसाथ निकला ! और हम दोनों ऐसे हंस रहे थे जैसे बरसों से एक -दूसरे को जानते हों :) चलो रीडिंग रूम में बैठते हैं थोड़ी देर .वहां अमूमन कोई होता नहीं था ! लायब्रेरियन रघुवंशी सर मेरे पति के घनिष्ट मित्र थे ज्यादा देर बैठने पर माधव के हाथ चाय भिजवा देते थे .वापसी में उनको बताकर ही आती थी. कोई संदेश या कोई लेख -वेख होता तो वे मुझे थमा देते कि प्रदीप को दे देना ! प्रदीप ? मेरे पति :)
उस दिन भी चाय आई ! मैंने माधव से कहा एक खाली कप ला दो ! और सर से पूछ लो कुछ देना तो नहीं ? हम दोनों इधर से ही निकल जाएँगे ,मेरा नमस्ते बोल देना ! हम बातचीत के औपचारिक दौर से गुजर कर आत्मीय हो चले थे .उसने मेरे बारे में पूछताछ की सहज -सी शुरुआत की थी मैंने बता दिया . अपने बारे में कुछ हिचकते हुए ,उसने स्वयम ही बताया ! जो भी था सबके अंदाज़ से ,एकदम अलग . दु:खद और चौंकाने वाला ! मै स्तब्ध रह गई ,पल भर को !
तृष्णा ने पांच साल पहले लव-मेरिज की थी .दोनों परिवार ख़ुश नहीं थे इस शादी से ! ऐसा अधिकतर होता रहा है ,हमारे समाज में . पर अब उसका पति उसके 5 साल के बेटे को लेकर गायब हो गया है ! उसे नहीं मालूम दोनों कहाँ है ? कहाँ -कहाँ खोजे ? किससे मदद मांगे ? क्या करे ? पुलिस ने उसे मायूस ही किया था ! ससुराल वालों ने आहत ! मायके वाले किनारा कर ही चुके थे ! पीड़ा से उसका मुख ज़र्द था . मैं किंकर्तव्यमूढ़ -सी ! क्या पति ऐसा हो सकता है ?
-------------------------------- डॉ. प्रतिभा स्वाति
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