रविवार, सितंबर 25, 2016

वा भई वा ....

... सेना को चाहिए 'मानव -बम " आतंकवाद के खिलाफ़ ........
मैं कतार के आखिर में हूँ ...............
आगे कोई है ?

राष्ट्रहित में आतंकवाद के खिलाफ़ क्यूँ ना इन दोनों को सेना को सौंप दिया जाए --------------------- की बनाओ ' मानव बम " और दो इंट का जवाब पत्थर से !
------------------------------------------------------- डॉ.प्रतिभा स्वाति



रविवार, सितंबर 18, 2016

जय हिन्द की सेना .....

20 .09 __  
उनका पियादा .... हाथी -घोड़े-ऊंट मार रहा है !
वज़ीर बोलता बड़े बोल ..........राजा हार रहा है !

_______________________________ डॉ. प्रतिभा स्वाति


1 9 . 09 

सरहद पे सैनिक कट रहा , माताएं है बेहाल !
गधा बिचारा क्या करे , पहिन शेर की खाल !
_________________________________ जय हिन्द की सेना !
__________________________________ डॉ. प्रतिभा स्वाति



___________________________________________________________________

शनिवार, सितंबर 17, 2016

मोक्ष.....




____________" मुझे , वो याद आने लगे हैं  " की व्याख्या  करनी चाहिए ? मैं  ये नहीं लिख सकती का कारण  बताना चाहिए ? या सीधे  कहनी  पर आ जाना चाहिए कि मैं अब इस ब्लॉग पर haikubazi या छुटपुट  कविताई नहीं करुँगी :)

___________ भले मेरी टाइपिंग  कि स्पीड कम है . मुझे typ करना उबाऊ लगता है ( जो  कि एक writer के हित में  नहीं है ) पर अब जब 3 साल  होने आए  ब्लॉग पर तब मुझे इस सबसे  कतराना ठीक  नहीं लगता .वरना जाने कब ईद मन जाए , .....ब... की मां ज्यादा दिन खैर नहीं मना सकती ( मेरे  मुस्लिम भाई मुझे मुआफ़  करेंगे , अल्ला कसम मैं अपने रास्ते  जा रही हूँ बस मिसाल के तौर पर  हवाला दिया है )

_________________________________

 मोक्ष 
____________

              नींद  खुलते ही कुछ ख़्वाब पलकों  की किनारों से छिटककर नज़दीक  ही  मुडेर पर जा  बैठे और  मुझे  देखकर मुस्कुराने  लगे ..........मैं  अब भी सोच में हूँ ...आख़िर रात सपने में क्या देखा था !

              कोई  था जो मुझे जगा रहा था ! कोई तो था ..... कौन  मुझे लेकर  कलम  गुदगुदा  रहा था ........ सियाही  के वो छींटे  शायद  अब भी  बांह पर हों .... मैंने  देखा हाथ तो साफ़ थे ! हथेली  एकदम  ख़ाली .... हाँ  ,कुछ  रेखाएं ,इधर-  उधर आ - जा रही थीं !

              मैं कबसे इन रेखाओं को ........इन्द्रधनुष  की शक्ल   देना  चाहती हूँ ! जब  हथेली  पर  इन्द्रधनु  हो ....तब अँगुलियों  की  पोरों  पर ,शंख  या चक्र  नहीं , इनकी  जगह  पर सूरज - चाँद होना  चाहिए ! पूरा  आसमान मैं अपनी  मुट्ठी  में  चाहती  हूँ ? मन  ठठा  पड़ा  जैसे मुझ  ही पर ! और .......मुंडेर  पर  बैठा  ख़्वाब  भी  खिलखिला  पड़ा .
             
                   अर्रर्रे  हाँ  ! यही  तो देखा था ,कल  रात  सपने में......कितनी   ख़ुश  थी  मैं........सचमुच , कुछ  ख़्वाब ,यूँ  ही  चले आते  हैं ...... खुशियाँ  लेकर ! मैंने  इस बार वहां   मुंडेर की तरफ़  मुस्कुराके  देखा , ख़्वाब  ग़ायब  था . उसकी जगह  बैठी  हक़ीकत मुझे  चिढ़ा  ही रही थी  समझो .उफ़ !!

                  हक़ीकत और कर  भी क्या सकती  है ...तीख़ी - कड़वी - बेमज़ा - बदज़ायका - बेमुलाहिज़ा !! मैंने  घूरकर  उसे देखा  तो उसने  भी मुझे ......ज़ाहिर  है वही रिस्पोंस  दिया :) तब  मैंने आँखे  बंद कर लीं , फ़िर से . मैं अब ....अभी  जागना  नहीं ,सोना  चाहती  हूँ . मुझे  ये हक़ीकत  बिल्कुल  पसंद  नहीं ........ जब देखो , हाथ  धोकर ख़्वाबों  के पीछे  पड़ी रहती  है .

                  ना  मैं इस यथार्थ   से डरती  या  घबराती  नहीं हूँ .ना  ही उसे कुसूरवार  ठहराने  की हिमाक़त  कर रही  हूँ . पर इसका  मुक़ाबला  करके अघा  चुकी  हूँ . न  वो  जीतती  है न  मैं  हारती  हूँ .......

                 इतने सारे  शर -सद्र्श  कंटक !! क्या  मै  भीष्म  हूँ ? अगर होती .....तब भी मैं  शरशैया  पर प्राण ना त्यागती ...... मुझे  इच्छा  मृत्यु  का  वरदान  यूँ  विस्मृत ना   होता .... मोक्ष  तो अभीप्सित  रहता  ही  खैर ........

                         मान  लो मैं हूँ ....... उस शैय्या  पर भीष्म नहीं .....तब मुझे  मंजूर  होता इंतज़ार ....युद्ध - विराम का .... अरे ! प्रॉपर  ट्रीटमेंट   अनिवार्य  था ....... विजय  के बाद  क्या फर्ज़ - फ़राइज़  यूँ खत्म  हुआ  करते  हैं ?

                       राम की जलसमाधि  या  कृष्ण  का व्याघ्र  से ..... या सीता का  धरती में समा  जाना  समझ में आता  है ............ पर भीष्म .... पितामह .....सातवें  देव .....गंगा - पुत्र ...... यूँ ,प्राणत्याग  ? नहीं  ....

                         हाय  विधाता  मुझे  दो ये  वरदान ..... मै  आत्महत्या  के खिलाफ़  हूँ .अरे  ये ज़ुर्म  है ..... कायरता  है .... पलायन  है ..... जीवन  का  अपमान  है .... कर्तव्यों  को  पीठ दिखाना  उचित  नहीं .... आजीवन  कर्तव्यों  का  निर्वाह  करूंगी ईमानदारी  से ..... पर  मुझे  चाहिए  " मोक्ष "  इस  धरती  की आबादी अब सरकार के  नियंत्रण में  नहीं ....... विधाता  अब  बंद  करो ये ............ पुनर्जन्म   का सिलसिला ! हर  मरने  वाले  को  मिले  मोक्ष ................ और हमे मिले  उनका आशीर्वाद ....आजीवन .....

--------------------------( पितृ - पक्ष  पर हर पितृ - पूर्वज  को समर्पित )

________________________ डॉ. प्रतिभा स्वाति



शुक्रवार, सितंबर 16, 2016

हमेशा ...जमाना ही क्यूँ बदलता है ?

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        परिस्थियाँ  बदलती  हैं ....धीरे -धीरे ! इतनी  धीरे कि इस  बदलाव  से हम  बिल्कुल अनभिज्ञ रहते हैं . फ़िर  पचास  साल बाद ....अचानक भौचकिया  जाते  हैं ...ये सब कब कैसे हुआ ? इसका ना तो जवाब होता है ना उस जवाब  का  कोई मतलब ! यानी  अहमियत या  महत्व !
_______________ और हम  तमाम  सवालों पर  विराम  लगाने  की  नाकामयाब  कोशिश करते  हैं , अपने आपको  ख़ुद तक के आगे  पाक-दामन ज़ाहिर  करने के लिए , बड़ी संजीदगी  से हर  ज़माने  में एक  पचास- साला  प्रौढ़  ये  कहता  मिला है  इतिहास की  किताबों  में कि .........'.ज़माना  बदल  गया है "
___________ हमे  कोई उनसे  ये पूछकर  बताए कि  ज़माना  यूँ ही बदल गया ? बिना  कुछ किये ? जीहाँ  , "बिना  कुछ किये"  यही  इस सवाल  का जवाब  है . यदि  हमने  कुछ  नहीं  किया तो ज़माना  यूँ  ही  बदलता  रहेगा ! इसे  अब  रोकना होगा ! और  कितना बदलना  है ? यदि  बदलाव के मायने चरित्र  का हनन है . मूल्यों  का अवमूल्यन  है . 
______________ यदि  बदलाव  का मतलब दुराचार है . गैरज़िम्मेदारी  है . स्वाभिमान का तिरोहित हो जाना है . सम्वेदना  का भूखा  रहना और रिश्तों  का  ज़लील होना  है . पैसे के पीछे भागना है . गलतियों के लिए दूसरों को ज़िम्मेदार  ठहराना है . उफ़ ! ये अंतहीन  फ़ेहरिस्त .... अब बस ! हमें उस जुमले पे अमल नही करना कि ज़माना .... हमें आज से अभी से उस कल के लिए कुछ करना होगा .... मैं  नहीं चाहती कि अब ज़माना और बदले . बहुत तो बदल गए ! 
___________ बदलाव आए तो बेहतरी के लिए ! सुख -समृद्धि -संतोष के लिए ! बदलाव अनुकरणीय हो , जिसपर हम नाज़ कर सकें और गर्व से कह सकें कि --------------------------------------------------- " जमाना  बदल गया है "
______________ डॉ. प्रतिभा स्वाति

शुक्रवार, सितंबर 09, 2016

कोई कहो .....


   कोई  कहो , निष्ठुर नियति से ,
 क्या  हुआ  ,जो  लाचार  मैं  हूँ  !

खेल जो विधि ने रचा मेरे लिए ,
विस्तार उसका ,उपसंहार मैं हूँ !
_________ डॉ.प्रतिभा स्वाति




शनिवार, सितंबर 03, 2016

मात .......



 मिली  जो  मात  ....
दिल  सिहर   गया  !
आसमां  टूटकर। ....
ज़मीं पे बिखर  गया !
------------डॉ  .प्रतिभा  स्वाति 
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