चढ़ रही थी धूप ------------------------- त्रिपाठी ' निराला '
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगी छा गई
प्रायः हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर!
------------------------------------------ ( पूरी कविता में / मुझे ये अंश ---- मुझे / जब -तब याद आता है )
फिर मन किया / कोई व्यंग्य लिखा जाए .....
फिर सोचा / अधूरी रचनाओं को पूरा कर लिया जाए !
यूँ कई माह हो गए / कोई कहानी नहीं लिखी मैंने !
तो क्या मैं कोई कहानी लिखूंगी ?
वैसे / कभी भी खुदसे ,सवाल नहीँ पूछने चाहिये ! जब खुदकी फटकार पड़ती है , तब कोई बचाने नहीं आता .......और चल पड़ती है कलम / बेसाख्ता ...यूँ ही ...
----------------------------- डॉ. प्रतिभा स्वाति
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