सोमवार, अक्तूबर 03, 2016

ओशो सही थे ?

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 प्रश्न 1 __________ क्या ओशो सही थे ?
_______________ दो शब्द सामने आए हैं ,इस सवाल में ,ओशो और सही ! लेकिन इस एक प्रश्न ने तमाम सवालों को अपनी ओर न्यौत दिया है _____

आख़िर वे थे कौन ?
क्या चाहते  थे ?
कहाँ के थे ?
क्या सही थे ?
क्या गलत थे ?
उनके कितने प्रशंसक थे ?
कितने  आलोचक थे उनके ?
वो थे तो क्यूँ थे ?
नहीं थे तो आख़िर क्यूँ ?
 ___________ ये सवालों का
 अंतहीन सिलसिला है बन्धु ! मै कौन होती हूँ जवाब देने वाली :) लेकिन जब मेरे पास जवाब  मौज़ूद हैं तो मेरा फर्ज़ है की उन जवाबों को उन सवालों तक पहुंचा दूँ ! 
__________ इसकी वजह ये है की जवाब देने के लिए अब रजनीश जिंदा नहीं ! और फ़िर इन जवाबों को मैं क्यूँ ढोऊँ ? मै स्वयं को रिक्त रखने  में यकीन रखती हूँ !सवाल अब भी वही है , वहीं है ! उसके जवाब उस तक पहुँचाने के लिए वक्त चाहिए ! जब जिस कार्य का योग होता  है , वह सम्पन्न होता है ! यह भी होगा ! मैंने बीड़ा उठा लिया  है . ओशो से जुड़े 100 सवालों का जवाब मैं दूंगी ,आम जन  को _________ सवाल फ़िर उठ गया है __ ये ' आम -जन कौन है ? यहाँ हर आम " खास " के लिबास में है :)
___________ अभी इतना ही ,शेष कल ......
____________ डॉ. प्रतिभा स्वाति


प्रभु का स्मरण भी उन्हीं के मन में बीज बनता है, जो इच्छाओं, द्वेषों और रागों के घास-पात से मुक्त हो गए हैं। जैसे कोई माली नई जमीन को तैयार करे, तो बीज नहीं बो देता है सीधे ही। घास-पात को, व्यर्थ की जड़ों को उखाड़कर फेंकता है, भूमि को तैयार करता है, फिर बीज डालता है।
इच्छा और द्वेष से भरा हुआ चित्त इतनी घास-पात से भरा होता है, इतनी व्यर्थ की जड़ों से भरा होता है कि उसमें प्रार्थना का बीज पनप सके, इसकी कोई संभावना नहीं है।
यह मन की, अपने ही हाथ से अपने को विषाक्त करने की जो दौड़ है, यह जब तक समाप्त न हो जाए, तब तक प्रभु का भजन असंभव है।
गीता दर्शन--ओशो




दक्षिणायण के जटिल भटकाव--
जो व्यक्ति प्रभु की साधना में लीन उत्तरायण के मार्ग से मृत्यु को उपलब्ध होता है, उसकी पुनःवापसी नहीं होती है। इस संबंध में कल हमने बात की।
लेकिन दक्षिणायण के मार्ग पर जी रहा व्यक्ति भी साधना में संलग्न हो सकता है, साधना की कुछ अनुभूतियां और गहराइयां भी उपलब्ध कर सकता है, लेकिन वैसे व्यक्ति की मृत्यु ज्यादा से ज्यादा स्वर्ग तक ले जाने वाली होती है, मोक्ष तक नहीं। और स्वर्ग में उसके कर्मफल के क्षय हो जाने पर वह पुनः वापस पृथ्वी पर लौट आता है। इस संबंध में पहले कुछ प्राथमिक बातें समझ लेनी चाहिए, फिर हम दक्षिणायण की स्थिति को समझें।
एक, जिस व्यक्ति की काम ऊर्जा बहिर्मुखी है, बाहर की तरफ बह रही है, और जिस व्यक्ति की कामवासना नीचे की ओर प्रवाहित है, वैसा व्यक्ति, कामवासना नीचे की ओर बहती रहे, तो भी अनेक प्रकार की साधनाओं में संलग्न हो सकता है, योगी भी बन सकता है।
और अधिकतर जो योग-प्रक्रियाएं दमन, सप्रेशन पर खड़ी हैं, वे काम ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी नहीं करती हैं, केवल काम ऊर्जा के अधोगमन को अवरुद्ध कर देती हैं, रोक देती हैं। तो ऊर्जा काम-केंद्र पर ही इकट्ठी हो जाती है, उसका बहिर्गमन बंद हो जाता है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
काम-केंद्र पर, सेक्स सेंटर पर ऊर्जा इकट्ठी हो, तो तीन संभावनाएं हैं। एक संभावना है कि पुरुष के शरीर की काम ऊर्जा स्त्री के शरीर की ओर, बाहर की तरफ बहे। या स्त्री की काम ऊर्जा पुरुष शरीर की ओर, बाहर की ओर बहे। यह बहिर्गमन है।
फिर दो स्थितियां और हैं। काम ऊर्जा काम-केंद्र पर इकट्ठी हो और ऊर्ध्वगामी हो, ऊपर की तरफ बहे, सहस्रार तक पहुंच जाए। उस संबंध में हमने कल बात की। एक और संभावना है कि काम ऊर्जा ऊपर की ओर भी न बहे, बाहर की ओर भी न बहे, तो स्वयं के शरीर में ही नीचे के केंद्रों की ओर बहे। इस स्वयं के ही शरीर में काम-केंद्र से नीचे की ओर ऊर्जा का जो बहना है, वही दक्षिणायण है।
निश्चित ही, ऐसा पुरुष स्त्री से मुक्त मालूम पड़ेगा। ठीक वैसा ही मुक्त मालूम पड़ेगा जैसा ऊर्ध्वगमन की ओर बहती हुई चेतना मालूम पड़ेगी। लेकिन दोनों में एक बुनियादी फर्क होगा। और वह फर्क यह होगा कि बाहर का गमन तो दोनों का बंद होगा, लेकिन जिसने दमन किया है अपने भीतर, उसकी ऊर्जा नीचे की ओर बहेगी और जिसने अपने भीतर ऊर्ध्वगमन की यात्रा पर प्रयोग किए हैं, उसकी ऊर्जा ऊपर की ओर बहेगी।
गीता दर्शन--प्रवचन--79



मनुष्य की चेतना दो प्रकार की यात्रा कर सकती है। एक तो अपने से दूर, इंद्रियों के मार्ग से होकर, बाहर की ओर। और एक अपने पास, अपने भीतर की ओर, इंद्रियों के द्वार को अवरुद्ध करके। इंद्रियां द्वार हैं। दोनों ओर खुलते हैं ये द्वार। जैसे आपके घर के द्वार खुलते हैं। चाहें तो उसी द्वार से बाहर जा सकते हैं, लेकिन तब द्वार खोलना पड़ता है। और चाहें तो उसी द्वार से भीतर आ सकते हैं, तब द्वार भीतर की ओर खोलना पड़ता है। एक ही द्वार बाहर ले जाता है, वही द्वार भीतर ले आता है।
इंद्रियां द्वार हैं चेतना के लिए, बहिर्गमन के या अंतर्गमन के।
लेकिन हम जन्मों-जन्मों तक बाहर की यात्रा करते-करते यह भूल ही जाते हैं कि इन्हीं द्वारों से भीतर भी आया जा सकता है। स्मरण ही नहीं रहता है कि जिस द्वार से हम घर के बाहर गए हैं, वही भीतर लाने वाला भी बन सकता है।
गीता दर्शन--ओशो
प्रवचन--74    


        
वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है।
और हे अर्जुन, वेद के जानने वाले जिस परम पद को
(अक्षर) ओंकार नाम से कहते हैं और आसक्तिरहित यत्नशील महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं, तथा जिस परमपद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परमपद को तेरे लिए संक्षेप में कहूंगा।
गीता ओशो
     

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