रविवार, मार्च 20, 2016

सिंड्रेला ...


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        जब पहली बार उसे सुना तब बहुत रोना आया - ओह ! कितनी ख़राब होती हैं सौतेली मां और बहनें , बेचारी सिंड्रेला ! ये बहुत पहले की बात है , तब  मैं उतनी बड़ी नहीं थी . उतनी यानि सिंड्रेला जितनी :) मुझे घर के काम नहीं आते थे . ज़ुरूरत भी नहीं थी . मेरी मां तो मेरी अपनी थी , बहनें भी सौतेली नहीं थीं .लेकिन मैं दु:खी थी सिंड्रेला के लिए !
-------------- फ़िर धीरे -धीरे दूसरी कहानियाँ आई और मैं उसे लगभग भूल ही गई , मगर .....अचानक ...एक दिन वो मुझे फ़िर याद आई ,अब मैं उससे बड़ी थी , मैं कोलिज की पढाई कर रही थी . इस बार मुझे जैसे ही वो खुबसूरत  पारदर्शी  पादुकाएँ दिखीं , मुझे वो याद आई ! जाने किस ख्याल या कहूँ की ख़्वाब के तहत उन्हें मैंने खरीद लिया ...... अब मैं उसे याद करके दु;खी  नहीं हूँ!तो क्या एक ही कहानी ....उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर ,अलग असर डालती है .... मैं जब भी उसे याद करती हूँ ,हर बार कुछ अलग .... यानि ये कहानी मुझसे जाने कितनी कहानी लिखवाने की ताकत रखती है :)
____________________ डॉ. प्रतिभा स्वाति




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