***************************
इन सियाह !
सर्द रातों में !
अरमानों की चिता !
बुझ भी गई / लेकिन ,
ये तपिश / जो
अब भी / बाकी है !
जाने कैसा ,
सुकून, देती है !
ये जो / धुंआ - सा
उठता है / अश्क
बहने का सबब है !
तेरी यादें / अब ,
मुझे , रुलाती नही !
याद करके तुझे ,
अब / यूँ ही / अक्सर ,
बेसबब / मुस्कुराती हूँ !
दूर होकर / मैं तुझसे ,
खुदके पास आती हूँ !
----------------------------------- डॉ . प्रतिभा स्वाति
******************************************
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें