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मन का रिक्त रहना , बड़ा ज़ुरुरी है ......पर ,हर ज़ुरुरी बात हो ही जाए / ये ज़ुरुरी नहीं :)
----------------- तो क्या मैं जरूरत के बारे में लिखना चाह रही हूँ ? या मन के बारे में ? या फिर उस "रिक्त "होने को लेकर भरी बैठी हूँ ?
_________________ मन को ख़ाली करना आसन नहीं है --- चाहे वो मन अर्जुन का हो ( चंचलम हि मन : कृष्णा , वायोरिव च दुष्कृताम !) या मेरा ...या आपका !
____जब बात में से बात निकल रही है / सवालों में से सवाल उठ रहे हैं /तब-- यदि मन को रिक्त न रखा जाए तब ? ये प्रश्न भी जवाब की तलब में तनकर खड़ा है !
------------- अब समाधान के लिये यदि मनोविज्ञान के पन्ने पलटे / तो निश्चय ही उलझ के रह जाना है ! मन को लेकर --- फ्रायड /एडलर /युंग जैसे मनोवैज्ञानिक अपनी पूरी बात आपस में नहीं जंचा पाए , फ़िर मै तो एक अदनी- सी ....... :)
_________________ मन वांछित विचार को जगह देने के लिये मन का ख़ाली होना ज़ुरुरी है ?
____________________ अवांछित के निष्कासन के लिये मन का रिक्त होना ज़ुरुरी है ?
-------- या मन रिक्त ही रहना चाहिये ?
_________________ योग कहता है , मन रिक्त हो !
योग /यानि हमारा छठा आस्तिक दर्शन !
योग यानि यम से लेकर समाधि तक का सफ़र !
योग यानि- आत्मा से परमात्मा का मिलन !
योग यानि .......ओह ! हम तो मन की बात कर रहे थे ! रिक्त होने की बात कर रहे थे !
____________इतना लिखकर / कुछ ताने -बाने बुने तो हैं / निरर्थक ही सही ! इस अभिव्यक्ति ने मन को ख़ाली सा कर दिया है ------ अब विचार ही नहीं ! उलझाव भी नहीं ! प्रवाह भी नहीं !
मन जो सागर था !
अब..... आकाश है !
............ मन रिक्त हो
....मन रिक्त है !........ जय हो !
------------------------------ डॉ. प्रतिभा स्वाति
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