गुज़रे यूँ ज़िन्दगी के
बरस ,माह और पल !
सौ बार गिरे गर तो ,
सौ बार गए सम्हल !
गम और ख़ुशी जैसे
पर्याय हो गए हैं !
अश्रु हंस दिए हैं ?
या ख़ुशियाँ हैं विकल ?
सतत बो रही हूँ शब्द ,
उग रही हैं ग़ज़ल !
गीत ,कथा ,छंद सब
है अर्थों की फ़सल !
धूप कई ख्वाबों की ,
कई रिश्तों की बारिश !
तज़ुर्बों की जमीं पर ,
कई मौसम गए बदल !
कुछ गीत खिल गए ,
मुक्तक बिखर गए !
जिंदगी की किताब से ,
कई पन्ने गए निकल !
जोड़ गुणा भाग किया
घट गया सब कैसे ?
सिफ़र लिए हाथों में
आँखों में लिए जल !
शब्द मूक हो गए ,
अर्थ वाचाल ,विकल !
सौ समस्या चाहती हैं
बस हो एक ही हल !
बातों के भँवर हैं,
गुस्ताख़ हैं अदब !
कुछ बदगुमान मैं हूँ ,
इबारतों के शगल !
बो दिए हैं बीज मैंने,
उगाउंगी मैं ही फ़सल !
फूल फल नज्र सबको ,
आज नहीं कल ,कल !
_________________________ डॉ .प्रतिभा स्वाति
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