गुरुवार, मई 26, 2016

बोती हूँ शब्द ....











गुज़रे  यूँ  ज़िन्दगी के 
  बरस ,माह और पल  !
  सौ  बार गिरे गर तो ,
सौ बार गए सम्हल !

गम और ख़ुशी जैसे 
पर्याय  हो  गए हैं !
अश्रु हंस दिए  हैं ?
या ख़ुशियाँ हैं विकल ?

सतत बो रही हूँ शब्द ,
उग रही  हैं ग़ज़ल !
गीत ,कथा ,छंद सब 
 है अर्थों  की फ़सल !

धूप कई  ख्वाबों  की ,
कई रिश्तों की बारिश !
तज़ुर्बों की जमीं पर ,
 कई मौसम  गए बदल !

कुछ गीत  खिल  गए ,
मुक्तक बिखर  गए !
जिंदगी की किताब से ,
कई पन्ने  गए  निकल !

जोड़ गुणा भाग किया 
घट  गया सब  कैसे ?
सिफ़र लिए  हाथों में 
आँखों में लिए जल !

शब्द  मूक  हो गए ,
अर्थ वाचाल ,विकल !
सौ समस्या चाहती हैं 
बस हो एक ही हल !

बातों  के  भँवर  हैं, 
गुस्ताख़  हैं अदब !
कुछ बदगुमान मैं हूँ ,
इबारतों के शगल !

बो दिए हैं  बीज मैंने, 
उगाउंगी  मैं ही फ़सल !
फूल फल नज्र सबको ,
आज नहीं कल ,कल !
_________________________ डॉ .प्रतिभा स्वाति


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