शनिवार, अगस्त 11, 2018

कवि तुम ....

 कवि ... मत  हो विकल !

जग  की कुटिलता ..
और व्यभिचार से !
गिरते हुए मूल्यों ..
हताहत संस्कार से !

नहीं खुलेंगी अब ..
लोभ की पट्टियाँ !
नहीं हटेंगे कभी ..
स्वार्थ के पर्दे !

फ़िर भी जब तक ,
आती है अजान ..
होती है आरती ...
निर्दोष है शिशु ..
खुला है आसमान ..
धरती उर्वर  है ...
बह रही है नदी ..
चल रही है हवा ..
खिल रहे हैं फूल ..
और ,
श्वास है अनुकूल .. !!!

कवि तुम ,
लेखनी को ,
धार  मत देना !
इस समाज को ,
श्रंगार मत देना !

तुम ....
अश्रु पोंछ सकते हो !
हटा सकते हो धूल !
सबके दिल अब भी ,
वैसे ही धड़कते हैं !

इस ...
प्रदूषण और शोर में ,
सिर्फ़ तुम ...
कह सकते हो ...
चेहरे को कमल !
अश्रु को मोती !
बस तुम .....
दे सकते  हो ,
मानव को सही दिशा !
निर्भीक निरभ्र निशा !

तुम .....
बना सकते हो ,
कलम को तलवार !
पर ...
इस बार बनाना ढाल !
चक्रव्यूह  से ,
अभिमन्यु को ,
जीवित लाना निकाल !
तुम पी सकते हो गरल !
कवि ,मत हो विकल !
____________________ डॉ . प्रतिभा स्वाति
( चित्र गूगल app से :))

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