मंगलवार, मई 10, 2016

बेचारा लेखक ...


____________________________________
लेखन के लिए क्या ज़ुरूरी है ? क्या -क्या ज़ुरूरी है ? यदि पिछले दो दशक पर नज़र डालूं तो अलग -अलग तमाम ज़वाब मिलते हैं . यहाँ तो सवाल भी मेरा है और जवाब भी मेरे ही हैं . बात साफ है ,मैं ख़ुद ही के बारे में ख़ुद को बता रही हूँ ,पर सबके सामने :)  आज नेट बहुत स्लो है . शायद पूरा दिन इसी post पर रहूँ .... मज़बूरी है , पर ज़रुरी है :)
 __________ लेखक के लिए ये बहुत जुरुरी है कि सबसे पहले अपने  विचारों को जाने -परखे - चुने और फ़िर उनको गति दे ,जो चुना है  उसे प्रवाह दे . जो चाहता है उसके लिए 'रिक्त ' को निर्मित करे !
 _____________ लिखना जितना सरल है उतना ही कठिन भी ! इसीलिए लिख तो सब लेते हैं पर सब लिख नहीं पाते . सबका अपना टैलेंट होता है . जैसे बोलते तो सभी हैं पर सबके बोलने में फ़र्क होता है . किसी के बोलने पर हम न्योछावर हो जाते हैं :) तब ,जबकि हमें मालूम होता है की वो जो बोल रहा है उसमे उसका अपना कुछ भी नहीं अर्थात अदाकारी है ! संवाद तो किसी और ने लिखे हैं और कहानीकार कोई और है' वो 'तो  बस अभिनय करता है !
_____________ यही बात लेखन पर भी लागू होती है . वाल्मीकि भी लिख गए ,उसीको फ़िर तुलसी ने लिखा फ़िर गुप्त जी ने लिखा अब कोई और भी लिखने वाला हो तो किसे मालूम ! विषय यही हो ,या फ़िर नहीं हो .गद्य हो या पद्य . खण्ड  हो पूर्ण . बात दरअसल शुरुआत  की होती है ! कई बार लेखक ख़ुद नहीं जानता कि वो क्या लिखने वाला है ? कई बार लिखना क्या है मालूम होते हुए भी लिख नही पाता . लेखक नहीं जानता कि वो क्यूँ लिखता है . लिखना उसकी आदत है , ज़ुरूरत है या जुनून ? क्या वो व्यावसायिक लेखक है ? यदि  हाँ , तब तो उसे वही लिखना पड़ेगा जो मांग है , जो विषय है . भाषण माँगा है तो वही लिखना पड़ेगा , बदले में मिलेगा पैसा ! लेखक की शोहरत यहाँ पर स्वत: समाधिस्थ  हो जाती है . उसके लिखे को हाथ  फैलाकर ,सीना फुलाकर जब बन्दा भाषण देता है तब ,वाह -वाह करने वाली पब्लिक कुछ नहीं जाती . तब लेखक की आह कोई नहीं सुनता ! वो ख़ुद भी नहीं ? वो अनजान और  ख़ुश  होने  का नाटक करता है . ऐसा  नाटक  वो ख़ुद को  छलने के लिए  करता है , इसलिए  यहाँ मंच और दर्शक  की  दरकार  नहीं  होती , बेचारा !
__________________ प्रत्यक्ष  या परोक्ष गिरीश सेठ और सुधीर गोयल जैसे लोगों ने मुझसे भी पेशकश की , मेरा लिखा हुआ द्रौपदीनामा उनके लिए मायने रखता होगा . मेरे इंकार की वज़ह से पैसे के लिए पेशकश नहीं हुई . उसे मैंने थोड़ा  सन्क्षिप्त करके दैनिक भास्कर में प्रकाशित करवा लिया था ___ " ध्रुपद  खयाल में द्रौपदी " शीर्षक से . मैं इस तरह के समझौते  नहीं करती , जहाँ ज़मीर जिंदा ना रह सके ! fb पर एक हाइकू भी चोरी हो जाए और मुझे  मालुम पड़  जाए तो तुरंत block करती हूँ . मेरी block list बड़ी लम्बी है  . zoom size 100 रखूं तो 4 feet का flow आता है. 600 से ज्यादा लोग होंगे . जिनका मैं कुछ नहीं कर सकती .
सोशल मिडिया में लेखक को उदार और बहादुर होना पड़ता है , वहां कॉपी राईट एक्ट काम नहीं करता !
____________________ डॉ . प्रतिभा स्वाति  



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें