शुक्रवार, मई 16, 2014

मेरी डायरी से ....


 चढ़ रही थी धूप ------------------------- त्रिपाठी ' निराला '

गर्मियों के दिन,

दिवा का तमतमाता रूप

उठी झुलसाती हुई लू

रुई ज्यों जलती हुई भू

गर्द चिनगी छा गई

प्रायः हुई दुपहर

वह तोड़ती पत्थर!
------------------------------------------ ( पूरी कविता में / मुझे ये अंश ---- मुझे / जब -तब याद आता है )




           आज मन किया कुछ / समीक्षा की जाए :)
फिर मन किया / कोई  व्यंग्य लिखा  जाए .....
फिर सोचा / अधूरी  रचनाओं को पूरा कर लिया जाए !
यूँ कई माह हो गए / कोई कहानी नहीं लिखी मैंने !
तो क्या मैं कोई कहानी लिखूंगी ?
               वैसे / कभी भी खुदसे ,सवाल  नहीँ पूछने चाहिये ! जब खुदकी  फटकार पड़ती है , तब कोई बचाने नहीं आता .......और चल पड़ती है कलम / बेसाख्ता ...यूँ ही ...
----------------------------- डॉ. प्रतिभा स्वाति

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