भ्रम / भरमाते हैं !
कभी / हरिण को ,
मरीचिका बनकर !
कभी / या अक्सर ?
उसे /मारीच बनकर !
हम सबके भीतर ,
एक हरिण जिन्दा है !
जानता है यथार्थ ,
खुदसे / शर्मिंदा है !
-------------------------------- जारी
------------------------------------- डॉ. प्रतिभा स्वाति
I like your all poem ,,Swati ji
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